मीराबाई कृष्ण-भक्ति;
जीवन परिचय
मीराबाई का मंदिर, चित्तौड़गढ़ (१९९०)
मीराबाई का जन्म संवत् 1504 विक्रमी में मेड़ता में दूदा जी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर हुआ।
(कई किताबो में कुड़की बताया जाता है बिल्कुल गलत है
क्योंकि कुड़की जागीर रतन सिंह जी को मीरा बाई के 11वे जन्मदिन पर मिली थी )
विस्तार से जानकारी के लिए मीरा चरित। ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं।
मीरा का जन्म राठौर राजपूत परिवार में हुए व् उनका विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में हुआ।
उदयपुर के महाराणा कुंवर भोजराज इनके पति थे जो मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र थे।
विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति का देहान्त हो गया।
पति की मृत्यु के बाद उन्हें पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया,
किन्तु मीरा इसके लिए तैयार नहीं हुईं। वे संसार की ओर से विरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं।
पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई।
ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।
मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा।
उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गईं। वह जहाँ जाती थीं,
वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग उन्हे देवी के जैसा प्यार और सम्मान देते थे।
मीरा का समय बहुत बड़ी राजनैतिक उथल पुथल का समय रहा है।
बाबर का हिंदुस्तान पर हमला और प्रसिद्ध खानवा की लड़ाई जो की बाबर और राणा संग्राम सिंह के बीच हुई, जिसमें राणा सांगा की पराजय हुई और भारत में मुग़लों का अधिपत्य शुरू हुआ।
हिंदुत्व के पतन और अवसान के दिन आरम्भ हुए।
देश में राजनैतिक अस्थिरता पैदा हुई जिसमें धर्म और संस्कृति की रक्षा एक बहुत बड़ी चुनौती थी।
इस सभी परिस्तिथियों के बीच मीरा का रहस्यवाद और भक्ति की निर्गुण मिश्रित सगुण पद्धत्ति सवर्मान्य बनी।
द्वारका में संवत 1627 वो भगवान कृष्ण की मूर्ति में समा गईं।