हमारे देश में कई ऐसे महापुरूष हुए हैं, जिनके जीवन और विचार से कोई भी व्यक्ति बहुत कुछ सीख सकता है. उनके विचार ऐसे हैं कि निराश व्यक्ति भी अगर उसे पढ़े तो उसे जीवन जीने का एक नया मकसद मिल सकता है.
इन्हीं में से एक हैं स्वामी विवेकानंद. पहले जानिए उनके बारे में ये खास बातें...जन्म एवं बचपन...
स्वामी विवेकानन्द का जन्म १२ जनवरी सन् १८६३ को कलकत्ता में एक कायस्थ परिवार में हुआ था।
स्वामी विवेकानन्द के बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था।
पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील
थे।
माता भुवनेश्वरी
देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं।उनका अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में
व्यतीत होता था।
नरेंद्र के पिता और उनकी माँ के धार्मिक,
प्रगतिशील व तर्कसंगत रवैया ने उनकी सोच और
व्यक्तित्व को आकार देने में मदद की।
शिक्षा...
सन् 1871 में, आठ साल की उम्र में, नरेंद्रनाथ ने
ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिला लिया जहाँ वे स्कूल
गए। 1877 में उनका परिवार रायपुर
चला गया। 1879 में, कलकत्ता में अपने परिवार की वापसी के बाद,
वह एकमात्र छात्र थे जिन्होंने प्रेसीडेंसी
कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम डिवीजन अंक प्राप्त किये।
आध्यात्मिक शिक्षुता - ब्रह्म समाज का प्रभाव...
1880 में नरेंद्र,
ईसाई से हिन्दू धर्म में रामकृष्ण के प्रभाव से
परिवर्तित केशव चंद्र सेन की नव विधान में शामिल हुए, नरेंद्र 1884 से पहले कुछ
बिंदु पर, एक फ्री मसोनरी लॉज और
साधारण ब्रह्म समाज जो ब्रह्म समाज का ही एक अलग गुट था और जो केशव चंद्र सेन और
देवेंद्रनाथ टैगोर के नेतृत्व में था। 1881-1884 के दौरान ये सेन्स बैंड ऑफ़ होप में भी सक्रीय रहे जो
धूम्रपान और शराब पीने से युवाओं को हतोत्साहित करता था।
यह नरेंद्र के
परिवेश के कारण पश्चिमी आध्यात्मिकता के साथ परिचित हो गया था। उनके प्रारंभिक
विश्वासों को ब्रह्म समाज ने जो एक निराकार ईश्वर में विश्वास और मूर्ति पूजा का
प्रतिवाद करता था, ने प्रभावित किया
और सुव्यवस्थित, युक्तिसंगत,
अद्वैतवादी अवधारणाओं , धर्मशास्त्र ,वेदांत और उपनिषदों के एक चयनात्मक और आधुनिक ढंग से अध्यन पर प्रोत्साहित
किया।
यात्राएँ...
स्वामी
विवेकानन्द शिकागो के विश्व धर्म परिषद् में बैठे हुए
२५ वर्ष की
अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए थे। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही
पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। सन् १८९३ में शिकागो (अमरीका) में विश्व धर्म परिषद्
हो रही थी। स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे।
योरोप-अमरीका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे।
वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में
बोलने का समय ही न मिले। परन्तु एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा
समय मिला। उस परिषद् में उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गये। फिर तो अमरीका
में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ। वहाँ उनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय बन गया। तीन
वर्ष वे अमरीका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति
प्रदान की। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें
साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया। अध्यात्म-विद्या
और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा" यह स्वामी विवेकानन्द का दृढ़
विश्वास था। अमरीका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक
अमरीकी विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। वे सदा अपने को 'गरीबों का सेवक' कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशान्तरों में उज्ज्वल करने
का उन्होंने सदा प्रयत्न किया।
विवेकानन्द का योगदान...
मुम्बई में गेटवे
ऑफ़ इन्डिया के निकट स्थित स्वामी विवेकानन्द की प्रतिमूर्ति
उन्तालीस वर्ष के
संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द जो काम कर गये वे आने वाली अनेक
शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे।
तीस वर्ष की आयु
में स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो, अमेरिका के विश्व
धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक पहचान
दिलवायी। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था-"यदि आप भारत को जानना
चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे,
नकारात्मक कुछ भी नहीं।"
वे केवल सन्त ही
नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और
मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा
था-"नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।" और जनता ने स्वामीजी की
पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। गान्धीजी को आजादी की लड़ाई में
जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानन्द के
आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के भी एक प्रमुख
प्रेरणा के स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की
पुण्यभूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा
यहीं-केवल यहीं-आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिये जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं
मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। उनके कथन-"‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल
करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये।"
उन्होंने कहा था
कि मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिये जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की
सेवा में खप जायें। उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ। विवेकानन्द पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने धर्म को
मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। उनका हिन्दू
धर्म अटपटा, लिजलिजा और
वायवीय नहीं था। उन्होंने यह विद्रोही बयान दिया था कि इस देश के तैंतीस करोड़
भूखे, दरिद्र और कुपोषण के
शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मन्दिरों में स्थापित कर दिया जाये और
मन्दिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये।
उनका यह कालजयी
आह्वान इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अन्त में एक बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करता
है। उनके इस आह्वान को सुनकर पूरे पुरोहित वर्ग की घिग्घी बँध गई थी। आज कोई दूसरा
साधु तो क्या सरकारी मशीनरी भी किसी अवैध मन्दिर की मूर्ति को हटाने का जोखिम नहीं
उठा सकती। विवेकानन्द के जीवन की अन्तर्लय यही थी कि वे इस बात से आश्वस्त थे कि
धरती की गोद में यदि ऐसा कोई देश है जिसने मनुष्य की हर तरह की बेहतरी के लिए
ईमानदार कोशिशें की हैं, तो वह भारत ही
है।
यह स्वामी
विवेकानन्द का अपने देश की धरोहर के लिये दम्भ या बड़बोलापन नहीं था। यह एक
वेदान्ती साधु की भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तटस्थ, वस्तुपरक और मूल्यगत आलोचना थी। बीसवीं सदी के इतिहास ने
बाद में उसी पर मुहर लगायी।
अब जानिए स्वामी विवेकानंद के ऐसे अनमोल विचार, जो आपके जीवन की दिशा को बदल सकते हैं...
1. पढ़ने के लिए
जरूरी है एकाग्रता, एकाग्रता के लिए जरूरी है ध्यान. ध्यान से ही
हम इन्द्रियों पर संयम रखकर एकाग्रता प्राप्त कर सकते है.
2. ज्ञान स्वयं
में वर्तमान है, मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता है.
गुरु गोबिंद सिंह
की सिखाई ये 11 बातें दिला देंगी सफलता...
3. उठो और जागो
और तब तक रुको नहीं जब तक कि तमु अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लेते.
4. जब तक जीना, तब तक सीखना, अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है.
5. पवित्रता, धैर्य और उद्यम- ये तीनों गुण मैं एक साथ चाहता हूं.
6. लोग तुम्हारी
स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्य तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहांत आज हो या युग में, तुम न्यायपथ से कभी
भ्रष्ट न हो.
7. जिस समय जिस
काम के लिए प्रतिज्ञा करो, ठीक उसी समय पर उसे करना ही चाहिये, नहीं तो लोगो का विश्वास उठ जाता है.
ध्यान और ज्ञान
का प्रतीक हैं भगवान शिव, सीखें आगे बढ़ने के सबक
8. जब तक आप खुद
पे विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पे विश्वास नहीं कर सकते.
9. एक समय में एक
काम करो , और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमे डाल दो
और बाकी सब कुछ भूल जाओ.
10. जितना बड़ा
संघर्ष होगा जीत उतनी ही शानदार होगी.
स्वामी विवेकानन्द मन्दिर...
विवेकानंद ओजस्वी
और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर में है। जीवन के अन्तिम दिन
उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा-"एक और विवेकानन्द चाहिये,
यह समझने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक
क्या किया है।" उनके शिष्यों के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन ४ जुलाई १९०२ को
भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घण्टे
ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली।
बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गयी। इसी गंगा तट के
दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था।
उनके शिष्यों और
अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में
विवेकानन्द तथा उनके गुरु रामकृष्ण के सन्देशों के प्रचार के लिये १३० से अधिक
केन्द्रों की स्थापना की।
- शिक्षा ऐसी हो
जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं
आत्मिक विकास हो सके।
- शिक्षा ऐसी हो
जिससे बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो
तथा बालक आत्मनिर्भन बने।
- बालक एवं
बालिकाओं दोनों को समान शिक्षा देनी चाहिए।
- धार्मिक
शिक्षा, पुस्तकों द्वारा न देकर
आचरण एवं संस्कारों द्वारा देनी चाहिए।
- पाठ्यक्रम में
लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों को स्थान देना चाहिए।
- शिक्षा,
गुरू गृह में प्राप्त की जा सकती है।
- शिक्षक एवं
छात्र का सम्बन्ध अधिक से अधिक निकट का होना चाहिए।
- सर्वसाधारण
में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया जान चाहिये।
- देश की आर्थिक
प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाय।
- मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू
करनी चाहिए।